सांची स्तूप (Sanchi Stupa)
सांची मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित एक ऐतिहासिक स्थल है, जो मुख्य रूप से अपने स्तूपों के लिए प्रसिद्ध है। यह स्थान भारत के बौद्ध धर्म और प्राचीन स्थापत्य कला का एक अद्वितीय उदाहरण है। सांची का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण आकर्षण इसका महान स्तूप है, जिसे मूल रूप से सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में बनवाया था।
सांची का इतिहास
सांची का इतिहास मुख्य रूप से मौर्य साम्राज्य के समय से जुड़ा हुआ है। सम्राट अशोक, जिन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाया था, ने सांची में स्तूप का निर्माण कराया। स्तूप एक गोलाकार संरचना होती है, जिसका उपयोग बौद्ध धर्म में ध्यान और धार्मिक अनुष्ठानों के लिए किया जाता था। सांची स्तूप में भगवान बुद्ध के अवशेष रखे गए थे, और इसे बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल माना जाता था।
सम्राट अशोक ने सांची के स्तूप के निर्माण के साथ ही यहां अन्य बौद्ध धार्मिक संरचनाओं की भी नींव रखी, जैसे मठ, मंदिर, और अन्य स्तूप। इसके बाद के शासकों ने भी सांची को संरक्षित और विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, खासकर शुंग और सातवाहन वंशों ने।
सांची का ऐतिहासिक समयक्रम
तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व (लगभग 250 ईसा पूर्व):
- सम्राट अशोक का शासन: सांची का इतिहास मौर्य सम्राट अशोक से प्रारंभ होता है, जिन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाया और भारत भर में बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए स्तूपों और स्तंभों का निर्माण कराया।
- सांची महान स्तूप का निर्माण: इस समय सांची में सबसे पहला और सबसे बड़ा स्तूप, जिसे महान स्तूप (सांची स्तूप 1) कहा जाता है, बनाया गया। इसमें भगवान बुद्ध के कुछ अवशेषों को रखा गया था।
- अशोक स्तंभ: अशोक ने यहां एक स्तंभ भी खड़ा किया, जिसके शीर्ष पर चार शेरों की मूर्ति बनाई गई थी। इसका शिलालेख अशोक की धार्मिक और प्रशासनिक नीतियों को दर्शाता है।
दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व (185-73 ईसा पूर्व):
- शुंग वंश का शासन: मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद शुंग वंश ने शासन किया। उन्होंने सांची स्तूपों का पुनर्निर्माण और विस्तार किया। महान स्तूप को इस समय नए पत्थरों से कवर किया गया और उस पर कई सजावटी कार्य किए गए।
- स्तूपों का विस्तार: शुंग वंश के समय सांची में अन्य स्तूपों का भी निर्माण हुआ, जैसे सांची स्तूप 2 और सांची स्तूप 3। इन स्तूपों का निर्माण धार्मिक महत्त्व और बढ़ती बौद्ध आस्था का प्रतीक था।
पहली शताब्दी ईसा पूर्व (लगभग 50-25 ईसा पूर्व):
- सातवाहन वंश का शासन: इस काल में सांची के स्तूपों के चारों ओर तोरण द्वार और रैलिंग का निर्माण हुआ। ये तोरण द्वार चारों दिशाओं में बनाए गए थे और उन पर भगवान बुद्ध के जीवन और बौद्ध धर्म से जुड़ी कथाओं की नक्काशी की गई थी।
चौथी से सातवीं शताब्दी ईस्वी:
- गुप्त काल: गुप्त काल में सांची का बौद्ध धार्मिक केंद्र के रूप में महत्व बना रहा। इस समय यहां बौद्ध मठों और अन्य संरचनाओं का भी निर्माण हुआ। इस काल के दौरान सांची में कई बौद्ध मूर्तियाँ और विहार (मठ) बनाए गए।
12वीं शताब्दी ईस्वी:
- इस समय तक बौद्ध धर्म का प्रभाव धीरे-धीरे कम होने लगा था और सांची को लगभग भुला दिया गया। हिंदू और इस्लामी प्रभाव के बढ़ने के साथ, बौद्ध स्थलों की देखभाल और पूजा-अर्चना समाप्त हो गई।
1818 ईस्वी:
- ब्रिटिश अधिकारी जनरल टेलर द्वारा सांची की पुनः खोज: सांची का फिर से विश्व के सामने आगमन हुआ जब ब्रिटिश जनरल टेलर ने इस स्थान की खोज की। इसके बाद पुरातात्विक खुदाई और अध्ययन शुरू हुए।
1912-1919 ईस्वी:
- सर जॉन मार्शल द्वारा संरक्षण कार्य: भारतीय पुरातत्व विभाग के निदेशक, सर जॉन मार्शल ने सांची के स्तूपों और अन्य संरचनाओं के संरक्षण और मरम्मत का कार्य शुरू किया। उनकी देखरेख में सांची के विभिन्न स्तूपों, मठों, और स्तंभों को फिर से बहाल किया गया।
1989 ईस्वी:
- यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल की मान्यता: सांची के महान स्तूप को यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया। इस मान्यता ने सांची को वैश्विक स्तर पर एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर के रूप में स्थापित किया।
संक्षेप में सांची के इतिहास की प्रमुख तिथियाँ:
- तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व: अशोक द्वारा सांची महान स्तूप का निर्माण।
- दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व: शुंग वंश द्वारा स्तूप का पुनर्निर्माण और विस्तार।
- पहली शताब्दी ईसा पूर्व: सातवाहन वंश द्वारा तोरण द्वार और रैलिंग का निर्माण।
- चौथी से सातवीं शताब्दी: गुप्त काल में बौद्ध मठों और मूर्तियों का निर्माण।
- 12वीं शताब्दी: सांची का पतन और भुला दिया जाना।
- 1818 ईस्वी: जनरल टेलर द्वारा सांची की पुनः खोज।
- 1989 ईस्वी: यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल की मान्यता।
सांची के स्तूप और स्थापत्य कला
सांची का सबसे प्रमुख आकर्षण उसका महान स्तूप (सांची स्तूप 1) है। यह एक विशाल गोलाकार संरचना है, जिसकी ऊँचाई लगभग 16.4 मीटर और व्यास लगभग 36.5 मीटर है। इसके ऊपर एक छोटी छतरी (चक्रवात) होती है, जो इसे और भी विशिष्ट बनाती है। यह स्तूप भगवान बुद्ध के अवशेषों को संजोने के लिए बनाया गया था और इसके चारों ओर बारीकी से नक्काशीदार तोरण द्वार हैं, जिन पर बौद्ध धर्म की विभिन्न घटनाओं और कथाओं को उकेरा गया है।
सांची के चारों तरफ बने तोरण द्वार (गेटवे) स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। प्रत्येक द्वार पर बुद्ध के जीवन की कहानियाँ, जाटकों की कथाएँ और बौद्ध धर्म से जुड़े अन्य महत्वपूर्ण प्रसंग अंकित हैं। इन नक्काशियों में मूर्तिकला और चित्रकला का अनोखा संगम देखने को मिलता है।
सांची स्तूप से जुड़े कुछ रोचक और महत्वपूर्ण तथ्य इस प्रकार हैं:
1. सम्राट अशोक की धरोहर:
- सांची का महान स्तूप सम्राट अशोक द्वारा तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में बनाया गया था, जिन्होंने बौद्ध धर्म अपनाने के बाद बौद्ध स्थलों का निर्माण करवाया। अशोक की पत्नी देवी, जो विदिशा की रहने वाली थीं, ने भी सांची में बौद्ध धर्म के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
2. भगवान बुद्ध की प्रतिमा नहीं:
- प्रारंभिक स्तूपों में, खासकर सांची के स्तूपों में, भगवान बुद्ध की प्रतिमा का अभाव है। उनके जीवन की घटनाओं और उनके उपदेशों को प्रतीकात्मक रूपों में दर्शाया गया है, जैसे पेड़, चक्र (धर्म चक्र), घोड़े, कमल और उनके पदचिह्नों के माध्यम से।
3. तोरण द्वार की अद्वितीय नक्काशी:
- सांची स्तूप के चारों तोरण द्वार बौद्ध धर्म के महत्वपूर्ण घटनाओं को दिखाने वाली नक्काशियों से सज्जित हैं। ये नक्काशियाँ जटिल और कलात्मक हैं, जो बुद्ध के जीवन और जाटकों (उनके पूर्व जन्मों की कथाएँ) का वर्णन करती हैं। यह कला प्राचीन भारतीय मूर्तिकला का उत्कृष्ट उदाहरण है।
- आश्चर्यजनक रूप से, सांची के स्तूपों पर सम्राट अशोक की कोई छवि नहीं है, जो कि कई अन्य बौद्ध स्थलों पर मिलती है। यह इस बात का प्रतीक है कि सांची में ध्यान केंद्रित मुख्य रूप से बौद्ध धर्म और बुद्ध के जीवन पर है, न कि उनके अनुयायियों पर।
5. अशोक का स्तंभ:
- सांची में अशोक द्वारा स्थापित एक स्तंभ भी है, जिसका शिखर पर चार शेरों वाला हिस्सा, जो आज भारतीय राष्ट्रीय प्रतीक का हिस्सा है, यहाँ के स्तंभ के शीर्ष भाग से लिया गया है। यह स्तंभ अशोक की बौद्ध धर्म के प्रति प्रतिबद्धता और प्रशासनिक नीति का प्रतीक है।
6. मठों की एक बड़ी संख्या:
- सांची केवल स्तूपों का ही नहीं, बल्कि बौद्ध भिक्षुओं के लिए बनाए गए कई मठों का भी स्थल था। यहाँ पर बने बौद्ध विहार (मठ) बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए ध्यान और साधना का केंद्र थे।
7. बौद्ध धर्म का पतन और पुनः खोज:
- 12वीं शताब्दी तक सांची को लगभग भुला दिया गया था, जब बौद्ध धर्म का भारत में पतन हो गया। लेकिन 1818 में ब्रिटिश अधिकारी जनरल टेलर द्वारा सांची की खोज की गई, जिसने इसे फिर से विश्व के सामने लाया। इसके बाद कई पुरातात्विक प्रयासों से सांची का संरक्षण किया गया।
8. सांची स्तूप और ब्रह्मांडीय प्रतीक:
- सांची स्तूप का गोलाकार आकार बौद्ध ब्रह्मांड विज्ञान का प्रतीक माना जाता है। इसके ऊपरी हिस्से (हरमिका) पर एक चक्र होता है, जो बुद्ध की शिक्षाओं का प्रतीक है। स्तूप के चारों तरफ बना गलियारा भी धार्मिक यात्रा और ध्यान का प्रतीक है।
9. विश्व धरोहर स्थल:
- 1989 में, सांची स्तूप को यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया। यह भारत के महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और धार्मिक स्थलों में से एक है, और इसका संरक्षण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा किया जाता है।
10. अशोक के पुत्र महेंद्र की भूमिका:
- कहा जाता है कि सम्राट अशोक के पुत्र महेंद्र ने बौद्ध धर्म को श्रीलंका में फैलाने के लिए सांची से ही यात्रा शुरू की थी। महेंद्र ने श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रचार किया, और सांची का यह स्थल उस ऐतिहासिक घटना से भी जुड़ा हुआ है।
11. बुद्ध का जीवन प्रतीकात्मक रूप में:
- सांची के स्तूपों पर बुद्ध के जीवन को चित्रित किया गया है, लेकिन बुद्ध को मानव रूप में नहीं दिखाया गया है। उनकी उपस्थिति को पदचिह्नों, धर्मचक्र, पेड़, और खाली सिंहासन के माध्यम से दर्शाया गया है। यह उस समय की एक महत्वपूर्ण कला शैली थी।
सांची स्तूप न केवल बौद्ध धर्म के इतिहास और कला का प्रतीक है, बल्कि यह भारतीय इतिहास और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण स्थल भी है, जो विश्व भर के पर्यटकों और इतिहास प्रेमियों को आकर्षित करता है।
सांची का महत्व
सांची बौद्ध धर्म के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह न केवल भारत में बल्कि विश्वभर में बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए एक प्रमुख तीर्थ स्थल है। 1989 में, इसे यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी गई, जो इसे और भी महत्वपूर्ण बनाता है।
पर्यटन और संरक्षण
सांची आज भी पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है, और इसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित किया जा रहा है। यह स्थान भारत की प्राचीन धरोहर का जीवंत उदाहरण है और कला, संस्कृति, और धर्म के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है।
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