उदारवादी राष्ट्रवाद (Moderate Nationalism) 1885 से 1905
उदारवादी राष्ट्रवाद के प्रमुख विशेषताएँ
संवैधानिक और शांतिपूर्ण संघर्ष:
- उदारवादी राष्ट्रवादियों ने संवैधानिक और शांतिपूर्ण तरीकों का समर्थन किया। वे कानून और संविधान के दायरे में रहकर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना चाहते थे।
- वे ब्रिटिश सरकार के साथ याचिकाएँ और ज्ञापन देकर सुधार की मांग करते थे। उनका मानना था कि ब्रिटिश सरकार भारतीयों की समस्याओं को समझेगी और सुधार करेगी।
ब्रिटिश शासन में विश्वास:
- उदारवादी नेताओं का मानना था कि ब्रिटिश शासन भारत में बुनियादी ढांचे और प्रशासनिक सुधार लेकर आया है।
- वे ब्रिटिश शासन के तहत ही भारतीयों को न्याय और अधिकार मिलने की संभावना देखते थे और इसी वजह से वे सीधे टकराव से बचते थे।
राजनीतिक और प्रशासनिक सुधार की मांग:
- उदारवादी नेताओं ने भारतीयों के लिए राजनीतिक अधिकार और प्रशासनिक सुधार की मांग की। उन्होंने भारतीय विधान परिषदों में भारतीयों के लिए अधिक प्रतिनिधित्व, सरकारी नौकरियों में आरक्षण, और प्रेस की स्वतंत्रता की मांग की।
- इन नेताओं ने 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद 'प्रार्थना, निवेदन और याचिका' की नीति अपनाई और ब्रिटिश सरकार से सुधारों की मांग की।
शिक्षा और समाज सुधार पर बल:
- उदारवादी नेताओं ने शिक्षा के महत्व को समझा और समाज सुधार की दिशा में भी कार्य किया। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त सामाजिक बुराइयों, जैसे जातिवाद, बाल विवाह, और सती प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई।
- वे मानते थे कि समाज में सुधार और शिक्षा के प्रसार से भारतीय समाज मजबूत होगा और स्वतंत्रता की दिशा में आगे बढ़ेगा।
धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीय एकता पर जोर:
- उदारवादी नेताओं ने धार्मिक सहिष्णुता और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा दिया। उनका मानना था कि सभी भारतीयों को एकजुट होकर राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना चाहिए, चाहे उनका धर्म या जाति कुछ भी हो।
- कांग्रेस के प्रारंभिक मंच पर सभी धर्मों के लोग एकत्र हुए और एकजुट होकर काम किया।
प्रमुख उदारवादी नेता
दादाभाई नौरोजी:
- दादाभाई नौरोजी को भारतीय राजनीति में "ग्रैंड ओल्ड मैन" कहा जाता है। उन्होंने 'ड्रेन थ्योरी' (Drain Theory) का प्रतिपादन किया, जिसमें उन्होंने दिखाया कि किस प्रकार ब्रिटिश शासन के कारण भारत से धन का प्रवाह ब्रिटेन की ओर हो रहा है।
- वे पहले भारतीय थे जिन्हें ब्रिटिश संसद में निर्वाचित किया गया।
गोपाल कृष्ण गोखले:
- गोपाल कृष्ण गोखले ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता के रूप में उदारवादी नीतियों का समर्थन किया। उन्होंने ब्रिटिश सरकार से संवैधानिक सुधारों की मांग की और महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु भी बने।
- गोखले ने सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी की स्थापना की, जिसका उद्देश्य भारतीय समाज में शिक्षा और सेवा को बढ़ावा देना था।
सुरेंद्रनाथ बनर्जी:
- सुरेंद्रनाथ बनर्जी भी एक प्रमुख उदारवादी नेता थे, जिन्होंने भारतीय सिविल सेवा में शामिल होने की कोशिश की लेकिन नस्लीय भेदभाव का सामना किया। इसके बाद उन्होंने राजनीतिक संघर्ष का मार्ग चुना।
- उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए जनसमर्थन जुटाने और ब्रिटिश सरकार से सुधारों की मांग करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
फिरोज शाह मेहता:
- फिरोज शाह मेहता बंबई से कांग्रेस के प्रमुख नेता थे। वे प्रेस की स्वतंत्रता और स्थानीय स्वशासन के प्रबल समर्थक थे।
- मेहता ने भारतीयों के अधिकारों की रक्षा के लिए कानूनी और राजनीतिक सुधारों की मांग की।
उदारवादी राष्ट्रवाद की सीमाएँ
हालांकि उदारवादी राष्ट्रवाद ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन इसके कुछ सीमाएँ भी थीं:
ब्रिटिश सरकार की उदासीनता:
- ब्रिटिश सरकार उदारवादी नेताओं की मांगों को गंभीरता से नहीं ले रही थी। सुधारों के प्रति सरकार की उदासीनता से लोगों में असंतोष बढ़ने लगा।
आम जनता से दूरी:
- उदारवादी नेताओं का आंदोलन ज्यादातर शिक्षित और संपन्न वर्ग तक ही सीमित रहा। आम जनता और किसानों के मुद्दों पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया, जिससे वे व्यापक जनसमर्थन हासिल नहीं कर सके।
क्रांतिकारी विचारधारा का उदय:
- उदारवादियों की धीमी गति और ब्रिटिश सरकार की उदासीनता के कारण कुछ नेताओं और युवा कार्यकर्ताओं में असंतोष पैदा हुआ। इससे एक नई पीढ़ी का उदय हुआ, जिन्होंने अधिक आक्रामक और क्रांतिकारी तरीकों से स्वतंत्रता की मांग की।
उदारवादी राष्ट्रवाद से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण तिथियाँ और इसके प्रभावों का विवरण निम्नलिखित है:
महत्वपूर्ण तिथियाँ
1885 - भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना:
- 28 दिसंबर, 1885 को ए.ओ. ह्यूम द्वारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। कांग्रेस की स्थापना का उद्देश्य भारतीयों को एक मंच प्रदान करना था, जहाँ से वे ब्रिटिश सरकार के सामने अपने राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों की मांग कर सकें।
- इस समय कांग्रेस का नेतृत्व उदारवादी नेताओं के हाथ में था, जो ब्रिटिश सरकार से संवैधानिक सुधारों की मांग कर रहे थे।
1886-1906 - कांग्रेस के शुरुआती सत्र:
- 1886 से 1906 तक कांग्रेस के विभिन्न सत्रों में उदारवादी नेताओं ने ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारतीयों के राजनीतिक और प्रशासनिक सुधारों की मांग की।
- इन सत्रों में याचिकाओं और ज्ञापनों के माध्यम से संवैधानिक सुधार, भारतीयों के लिए विधान परिषदों में अधिक प्रतिनिधित्व, और भारतीयों के अधिकारों की रक्षा पर जोर दिया गया।
1892 - भारतीय परिषद अधिनियम:
- उदारवादी नेताओं के प्रयासों के कारण ब्रिटिश सरकार ने 1892 का भारतीय परिषद अधिनियम (Indian Councils Act) पारित किया। इस अधिनियम के तहत भारतीयों को विधान परिषदों में सीमित प्रतिनिधित्व मिला, लेकिन यह पर्याप्त नहीं था।
- उदारवादियों ने इसे अपनी मांगों की दिशा में एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण कदम माना।
1905 - बंगाल का विभाजन:
- 1905 में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया, जिससे भारतीय राजनीति में एक बड़ा उथल-पुथल हुआ। इस विभाजन का उद्देश्य बंगाल के हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच फूट डालना था।
- इस विभाजन के खिलाफ व्यापक विरोध हुआ, जिसने कांग्रेस के भीतर एक नए उग्रवादी गुट (गरम दल) के उदय को जन्म दिया। इस घटना के बाद उदारवादी और उग्रवादी विचारधाराओं में स्पष्ट अंतर उभरने लगा।
1906 - कांग्रेस का सूरत अधिवेशन:
- 1906 में कांग्रेस का सूरत अधिवेशन हुआ, जिसमें उदारवादी और उग्रवादी नेताओं के बीच मतभेद खुलकर सामने आए। इस अधिवेशन में कांग्रेस का विभाजन हो गया, जिससे उदारवादी और उग्रवादी नेताओं की राहें अलग-अलग हो गईं।
- यह घटना भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में एक महत्वपूर्ण मोड़ थी, जहाँ से उग्रवादी विचारधारा का प्रभाव बढ़ने लगा।
1909 - मॉर्ले-मिंटो सुधार (भारतीय परिषद अधिनियम 1909):
- उदारवादी नेताओं के निरंतर प्रयासों के परिणामस्वरूप 1909 का भारतीय परिषद अधिनियम पारित किया गया, जिसे मॉर्ले-मिंटो सुधार के नाम से भी जाना जाता है। इस अधिनियम के तहत विधान परिषदों में भारतीयों का प्रतिनिधित्व बढ़ाया गया और कुछ क्षेत्रों में चुनाव की प्रक्रिया शुरू की गई।
- हालांकि, इन सुधारों ने सांप्रदायिक आधार पर चुनाव का प्रावधान किया, जिससे हिंदू-मुस्लिम एकता को नुकसान पहुंचा।
उदारवादी राष्ट्रवाद के प्रभाव
राजनीतिक चेतना का विकास:
- उदारवादी नेताओं ने भारतीयों में राजनीतिक जागरूकता को बढ़ावा दिया। उनके आंदोलनों और विचारों के माध्यम से भारतीय समाज में राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ। यह भारतीयों को अपने अधिकारों और ब्रिटिश शासन के तहत अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक करने में सहायक सिद्ध हुआ।
- कांग्रेस के माध्यम से राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय भागीदारी की भावना का विकास हुआ।
संवैधानिक सुधारों की दिशा में कदम:
- उदारवादी नेताओं के निरंतर प्रयासों से ब्रिटिश सरकार को भारतीय समाज में कुछ संवैधानिक सुधार करने पर मजबूर होना पड़ा। 1892 और 1909 के भारतीय परिषद अधिनियम इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
- हालांकि ये सुधार भारतीयों की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं थे, लेकिन उन्होंने राजनीतिक प्रतिनिधित्व और चुनावी प्रक्रियाओं का मार्ग प्रशस्त किया।
धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीय एकता का समर्थन:
- उदारवादी राष्ट्रवादियों ने धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीय एकता का समर्थन किया। उन्होंने विभिन्न धर्मों और जातियों के लोगों को एक मंच पर लाने का प्रयास किया, जिससे भारतीय समाज में एकता की भावना मजबूत हुई।
- उन्होंने धार्मिक भेदभाव के खिलाफ और समाज में समानता की भावना को प्रोत्साहित किया।
शिक्षा और सामाजिक सुधार का प्रसार:
- उदारवादी नेताओं ने समाज में शिक्षा के प्रसार और सामाजिक सुधारों की दिशा में काम किया। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त जातिवाद, अंधविश्वास, और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ अभियान चलाया।
- शिक्षा के महत्व को समझते हुए उन्होंने भारतीय समाज में शिक्षा के विस्तार के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए, जिससे भारतीय समाज में आधुनिकता का प्रसार हुआ।
स्वतंत्रता संग्राम में दिशा:
- उदारवादी राष्ट्रवाद ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक प्रारंभिक दिशा दी। हालांकि उनकी नीतियाँ अहिंसात्मक और संवैधानिक थीं, लेकिन उन्होंने भविष्य के नेताओं और क्रांतिकारियों को प्रेरित किया।
- गोपाल कृष्ण गोखले जैसे उदारवादी नेता महात्मा गांधी के प्रेरणास्रोत बने, जिन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह की नीति अपनाई और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी।
आक्रामक राष्ट्रवाद का उदय:
- उदारवादी राष्ट्रवादियों की शांतिपूर्ण और संवैधानिक नीतियों की सीमाओं और ब्रिटिश सरकार की उदासीनता के कारण भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में आक्रामक राष्ट्रवाद का उदय हुआ। बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, और बिपिन चंद्र पाल जैसे नेताओं ने उग्रवादी नीतियों का समर्थन किया और "स्वराज" की मांग की।
- इस प्रकार, उदारवादी और उग्रवादी विचारधाराओं का संघर्ष भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया।
निष्कर्ष
उदारवादी राष्ट्रवाद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रारंभिक चरण का महत्वपूर्ण हिस्सा था। इन नेताओं ने भारतीयों के राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों के लिए संघर्ष किया और संवैधानिक सुधारों के माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्त करने का प्रयास किया। हालांकि, उनकी नीतियों की सीमाओं और ब्रिटिश सरकार की उदासीनता के कारण, आंदोलन को नई दिशा देने की आवश्यकता पड़ी, जिससे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अधिक आक्रामक और क्रांतिकारी विचारधारा का उदय हुआ।
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