नेहरू युग के दौरान प्रेस और प्रेस अधिनियम


नेहरू युग (1947-1964) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री कार्यकाल को संदर्भित करता है। इस युग की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

  1. स्वतंत्रता और विभाजन के बाद का पुनर्निर्माण: नेहरू युग भारत की स्वतंत्रता के बाद का समय था, जब देश को विभाजन के परिणामों और नई सरकार की स्थिरता की चुनौतियों का सामना करना पड़ा। नेहरू ने आधुनिक भारत की नींव रखने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए।

  2. सामाजिक और आर्थिक नीतियाँ: नेहरू ने औद्योगिकीकरण और विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के विकास पर जोर दिया। उनके कार्यकाल में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की स्थापना की गई और भारत ने "सप्लायर्स" की ओर कदम बढ़ाया।

  3. शिक्षा और विज्ञान: नेहरू ने शिक्षा के क्षेत्र में सुधारों की दिशा में कई कदम उठाए। उन्होंने IITs (Indian Institutes of Technology) की स्थापना की और भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) को प्रोत्साहित किया।

  4. विदेश नीति: नेहरू की विदेश नीति "गैर-संरेखण" (Non-Alignment) पर आधारित थी। उनका उद्देश्य भारत को किसी भी महासत्ता के ब्लॉक में शामिल किए बिना एक स्वतंत्र विदेश नीति बनाए रखना था।

  5. संवैधानिक सुधार: नेहरू ने भारतीय संविधान को लागू किया और इसके अनुसार देश के लोकतांत्रिक ढांचे को मजबूत किया।

  6. राजनीतिक सुधार और सामाजिक परिवर्तन: उन्होंने जातिवाद, सामंतवाद और भेदभाव के खिलाफ कदम उठाए और समाज में समानता की दिशा में प्रयास किए।

नेहरू युग ने भारतीय राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव डाला, और उनकी नीतियाँ आज भी भारतीय राजनीति और समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

नेहरू युग के दौरान (1947-1964) भारत में प्रेस की स्वतंत्रता और प्रेस पर लगाए गए प्रतिबंधों का एक महत्वपूर्ण पहलू था। जवाहरलाल नेहरू, जो स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री थे, ने प्रेस की स्वतंत्रता का समर्थन किया और इसे लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ माना। हालांकि, स्वतंत्रता के बाद के शुरुआती वर्षों में भारत को विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिनमें विभाजन, सांप्रदायिक दंगे, और सामाजिक एवं आर्थिक अस्थिरता शामिल थी। इस संदर्भ में प्रेस पर सरकार का नियंत्रण और प्रेस अधिनियम का महत्वपूर्ण योगदान रहा।

1. नेहरू और प्रेस की स्वतंत्रता:

  • नेहरू प्रेस की स्वतंत्रता में दृढ़ विश्वास रखते थे और उन्होंने इसे एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए आवश्यक माना।
  • लेकिन स्वतंत्रता के बाद की उथल-पुथल और अस्थिरता के कारण प्रेस पर कुछ नियंत्रण लगाए गए। नेहरू का मानना था कि प्रेस को भी जिम्मेदार होना चाहिए और समाज को स्थिरता की ओर ले जाना चाहिए।

2. प्रेस अधिनियम और सेंसरशिप:

  • प्रेस (आपातकालीन शक्तियाँ) अधिनियम, 1931: ब्रिटिश काल का यह अधिनियम स्वतंत्रता के बाद भी लागू रहा, जिसमें सरकार को यह अधिकार था कि वह प्रेस पर प्रतिबंध लगा सकती है और समाचार पत्रों को जब्त कर सकती है।
  • स्वतंत्रता के बाद के शुरुआती वर्षों में इस अधिनियम का उपयोग विभिन्न उथल-पुथल और सांप्रदायिक तनावों के समय किया गया।
  • 1948 प्रेस अधिनियम: इस अधिनियम के अंतर्गत, सरकार ने सांप्रदायिक तनाव और हिंसा को रोकने के लिए प्रेस पर कुछ नियंत्रण लगाने की अनुमति दी।

3. प्रेस की भूमिका:

  • नेहरू ने प्रेस को सरकार की आलोचना करने और लोकतांत्रिक संस्थानों की निगरानी करने की स्वतंत्रता दी। उन्होंने विश्वास किया कि एक स्वतंत्र प्रेस लोकतंत्र को मजबूत करता है।
  • हालांकि, नेहरू ने समय-समय पर प्रेस की आलोचना भी की जब उन्हें लगा कि प्रेस राष्ट्रीय एकता और स्थिरता के खिलाफ काम कर रहा है। विशेषकर विभाजन और पाकिस्तान के साथ युद्ध के समय, प्रेस को जिम्मेदार बनाने के लिए सरकार ने हस्तक्षेप किया।

4. नेहरू युग की चुनौतियाँ:

  • विभाजन के बाद की स्थिति और कश्मीर जैसे संवेदनशील मुद्दों ने सरकार को प्रेस पर नियंत्रण लगाने के लिए मजबूर किया।
  • नेहरू की सरकार ने प्रेस की स्वतंत्रता को पूरी तरह से नहीं रोका, लेकिन जब भी राष्ट्रीय सुरक्षा या सांप्रदायिक तनाव की बात आई, तो प्रेस पर कुछ नियंत्रण लगाए गए।

नेहरू युग में प्रेस की स्वतंत्रता और सरकार के बीच एक संतुलन बना रहा। जहाँ एक ओर नेहरू ने प्रेस की स्वतंत्रता का समर्थन किया, वहीं दूसरी ओर, राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए प्रेस पर कुछ प्रतिबंध भी लगाए गए।

नेहरू युग के दौरान प्रेस पर लगाए गए नियंत्रणों और प्रेस की स्वतंत्रता के बीच के संतुलन के परिणामस्वरूप भारत में प्रेस और लोकतंत्र के विकास पर कई प्रभाव पड़े। इस युग के निहितार्थ और निष्कर्ष को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है:


प्रभाव और परिणाम:

  1. लोकतंत्र का स्थायित्व और विकास:

    • प्रेस की स्वतंत्रता को एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अनिवार्य माना गया, और नेहरू के अधीन, प्रेस ने सरकार की आलोचना करने और जनता की आवाज़ उठाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इससे भारतीय लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हुईं।
    • प्रेस पर कुछ नियंत्रण लगाने से यह सुनिश्चित किया गया कि सांप्रदायिक तनाव और राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर जिम्मेदार रिपोर्टिंग हो। हालाँकि, इसके चलते प्रेस की पूरी स्वतंत्रता का अनुभव न हो सका, लेकिन यह एक संतुलन बना रहा।
  2. राष्ट्रीय एकता और स्थिरता:

    • विभाजन के बाद के वर्षों में, प्रेस पर लगाए गए प्रतिबंधों ने राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने में मदद की। हालांकि इसने प्रेस की स्वतंत्रता को सीमित किया, लेकिन इससे देश में बड़े पैमाने पर हिंसा को नियंत्रित करने में सहायता मिली।
    • सरकार ने प्रेस को राष्ट्रीय एकता और विकास के लिए जिम्मेदार बनाने का प्रयास किया, जिसके कारण प्रेस को भी अपनी भूमिका और रिपोर्टिंग के बारे में आत्म-संयम बरतना पड़ा।
  3. प्रेस की ज़िम्मेदारी का विकास:

    • सरकार के हस्तक्षेपों ने प्रेस को यह महसूस कराया कि स्वतंत्रता के साथ ज़िम्मेदारी भी जुड़ी होती है। इससे प्रेस में आत्म-नियंत्रण और नैतिक मानदंडों के प्रति जागरूकता का विकास हुआ।
    • प्रेस ने अपनी रिपोर्टिंग में अधिक ध्यान दिया और राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए काम किया, जिससे उसकी समाज में विश्वसनीयता बढ़ी।
  4. सेंसरशिप का दीर्घकालिक प्रभाव:

    • नेहरू युग के दौरान प्रेस पर लागू किए गए सेंसरशिप के नियमों ने भविष्य में सरकारों को प्रेस पर नियंत्रण करने के लिए एक आधार प्रदान किया। हालांकि नेहरू का दृष्टिकोण संतुलित था, लेकिन बाद में अन्य नेताओं ने इसका दुरुपयोग किया, विशेषकर 1975 के आपातकाल के दौरान।
    • इसके परिणामस्वरूप प्रेस और सरकार के बीच संबंधों में अविश्वास की भावना उत्पन्न हुई, जिसका प्रभाव भविष्य में प्रेस पर लगे प्रतिबंधों और सेंसरशिप की बहसों में देखने को मिला।

निष्कर्ष:

नेहरू युग में प्रेस और सरकार के बीच एक संतुलित संबंध विकसित हुआ। नेहरू ने प्रेस की स्वतंत्रता का समर्थन किया, लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा और एकता के मामलों में प्रेस पर नियंत्रण लगाने की भी आवश्यकता महसूस की। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उस समय के संदर्भ में प्रेस की स्वतंत्रता और जिम्मेदारी के बीच संतुलन बनाना आवश्यक था।

हालांकि, इस संतुलन के कुछ दीर्घकालिक प्रभाव भी थे, जिसमें सेंसरशिप की अवधारणा और प्रेस पर सरकारी नियंत्रण की प्रवृत्ति भी शामिल थी। नेहरू युग की यह विरासत आने वाले वर्षों में भारतीय प्रेस और लोकतंत्र के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।






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